Monday 25 April 2016

मानवाधिकार, राष्ट्रीए सुरक्षा और न्यायिक सक्रियता: कितना राजनीतिक कितना गैर-राजनीतिक


पिछले 15 अप्रेल 2016 को भोपाल के राष्ट्रीए न्यायिक अकादमी में तीन दिवसीय कार्यक्रम मे पहले दिन उच्चतम न्यायलय के मुख न्यायधीश श्री टी॰ एस ॰ ठाकुर तथा अन्य न्याधीशों को आंतरिक और बाहरी सुरक्षा पर लगभग एक घंटे के सम्बोधन मे राष्ट्रिय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोभाल ने कहा की राष्ट्रीए सुरक्षा एक गैर राजनीतिक और गैर पक्षपातपूर्ण विषय है और इसे राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए, उन्होने कहा की न्यायिक त्वरित कारवाई के लिए न्यायलयों का अधिक से अधिक सहयोग चाहिए, राष्ट्रीए सुरक्षा के कारकों पर अपनी राष्ट्रीए योजना को विस्तार करते हुए उन्होने इस बात पर बल दिया की तकनीक, अनुसंधान तथा अन्वेषन कैसे आतंकवाद और आंतरिक उग्रवाद के खतरों का सामने करने में सहायक हो सकते है।
एक सामान्य सिद्धान्त में राष्ट्रीए सुरेक्षा का मतलब होता है लोगों की सुरक्षा न की शासन के सर्वोकृष्ट की सुरक्षा। राष्ट्रीए सुरक्षा के नाम पर आँख बंद कर के हर बार सरकार का भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि कई बार राजनीतिक और दलगत कारको की वजहों से सीमा पर या आंतरिक सुरक्षा का हवाला दिया जाता है। उदाहरण के लिए सयुंक्त राज्य और इस्राइल के साथ कथित इस्लामिक आतंकवाद से भारत की साझा युद्ध सहमति एक तरह से उनके यहाँ जैसी आतंक को आमंत्रित करने की ओर बढ़ता कदम इस लिए प्रतीत होता है की युद्ध और रक्षा के बीच एक पतली पर बहुत ही स्पष्ट लकीर होती है तथा इस मौजूदा सुरक्षा समझोते की वजह रक्षा बाज़ार और हमारी अति संवेदेनशील अन्तराष्ट्रिय सीमाओं का राजनीतिकरण की मजबूरी ही नहीं जरूरत भी  है । आतंक तो आतंक है लेकिन हर राष्ट्र में उसकी राजनीति तथा  समाधान की नीति अलग होती है। मसलन कश्मीर और उत्तरपूर्व में समाज विरोधी या देश विरोधी गतिविधियों का कारण लगता भले ही सीमा पार प्रायोजित हो पर यह पूरी तरह से हमारी सरकारों की आलोकतांत्रिक नीतियाँ है, जिनकी वजह से मानवाधिकार का हनन होना और आक्रोश या संघर्ष की जमीन का बनना लाज़मी हो जाता है, जो एक राजनीतिक प्रश्न है, जिसका ताज़ा उदाहरण कुपवाड़ा और हंदवाड़ा की घटना है जो पी॰ डी॰ पी॰ और भा॰ ज॰ पा॰ के गठबंधन के कारण इसलिए लगता है की पी॰ डी॰ पी॰ की छवि नर्म अलगाओवादी वाली है जो पकस्तीनी मुद्रा, पूर्ण स्वतन्त्रता, इत्यादि का समर्थन करती हुए उस मध्यवर्ती क्षेत्र पर अपना कब्जा बरकरार रखती थी जो मुख्य धारा की राजनीति और कट्टर अलगाओवादी के बीच की थी, लेकिन गटबंधन के बाद वो जगह खाली उसी तरह हो गयी जिस तरह अस्सी के दसक मे नेशनल कोन्फ्रेंस और कॉंग्रेस के गठबंधन  के बाद सत्ता से इत्तर  नए  मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का गठन हुआ था और जिसके नेताओं ने हूरियत और हिजबूल मुजाहिदीन जैसी अलगाओवादी संगठनो का आधार रखा। कहने का अर्थ यह हैं की ये सारे समीकरण राजनीति की मौजूदा मांग की वजह से बनते हैं, बनते रहेंगे तथा इसका समाधान सिर्फ कानून व्यवस्था या सेना नहीं है जिनकी तैनाती लगभग पिछले पच्चीस साल से विरोध के बावजूद विशेष अधिकारो के साथ उन प्रदेशों मे है।  
ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रीए सुरक्षा सलाहकार का सम्बोधन चौंकाने वाला ही नहीं अन्यायपूर्ण भी है। क्योंकि राष्ट्रीए सुरक्षा अब सिर्फ राजनीतिक या गैर राजनीतिक ना होकर शासन करने वाली राजनीतिक पार्टी के घरेलू या विदेश नीति पर निर्भर करता है। अलग अलग राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक समूहों में राष्ट्रीएता को ले कर मतभेद हो सकता है, राष्ट्रीए सुरक्षा और मानवाधिकार का अंतरसंबंध असाधारण रूप से राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक विषय या कहें समस्या है।  मानवाधिकार के सिद्धान्त और राष्ट्रीए सुरक्षा की नीति में इस बात को लेकर असहमिति है की सुरक्षा की मांग और मानवाधिकार के दावे के बीच लकीर कैसी हो तो फिर गैर-पक्षपातपूर्ण या गैर राजनीतिक बात कहाँ रह जाती है।
   हमे नहीं लगता की हमारे न्यायधीशों को राष्ट्रीए सुरक्षा सलाहकार की एकपक्षीय या पक्षपातपूर्ण सम्बोधन को सुनना जरूरी है और अगर यह जरूरी है भी तो ऐसे ही सम्बोधन का अवसर सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी मिलना चाहिए, जो हर समय संवैधानिक अधिकार के लिए उनका प्रतिनिधितव करते हैं जिनके साथ राष्ट्रिय सुरक्षा के नाम पर भेद-भाव किया जाता है। फिर ऐसा ही सम्बोधन आदिवासी, दलित, डर और असुरक्षा की वजह से सहमे और प्रतिरोध करते अल्पसंख्यक, हर समय बेघर होने का खौफ लिए झुगियों की आबादी, हाशिये पे खुदकशी करते किसान, भूमिहीन मजदूर, उत्पीड़ित महिलाओं, तथा कुपोषित बच्चों, की तरफ से भी होना चाहिए क्योंकि जिस भी नाम से इन्हे हम पहचानते हैं असल मे ये सब अपने अधिकारों और संसाधनो के असमान वितरण से  सिर्फ “ वंचित ” हैं, और इन वंचितों को भी न्यायधीशों से राष्ट्रिय सुरक्षा सलाहकार की ही तरह “अधिक सहयोग” और “ त्वरित कारवाई “ की अपेक्षा रखने का पूरा हक़ मिलना ही चाहिये।
एक अवधारणा सी बन गयी है की मानवाधिकार राष्ट्रिय सुरक्षा की राह मे बाधक है, दलील यह की इतनी क्षति का जोखिम तो जमानती तौर पे लेना ही पड़ेगा, हर समय सिर्फ नियमों के तहत सफलता नहीं मिल सकती कभी कभी सीमा रेखा से बाहर जाना पड़ता है। परिणाम की लालसा अक्सर प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ करने पर आमादा रहती है नहीं तो  क्या सचमुच मानवाधिकार की शर्त इतनी कठिन है की इसी राज्य के नाक के नीचे ऐसी अवधारणा सिर्फ पनपती ही नहीं बल्कि अपने पूर्वाग्रहों से भरे दुराग्रहों के प्रति आग्रही भी हो जाती हैं।  राष्ट्रिय सुरक्षा सलाहकार क्या यह नहीं जानते जब नियमों का पालन नहीं होगा तो न्याय  नहीं होगा, और जब न्याय  ही नहीं होगा तो न्यायधीशों की क्या जरूरत। क्या कोई भी राष्ट्र अपने नागरिकों और व्यक्तियों सुरक्षा किए बिना अपनी रक्षा कर सकता है, सच तो यह है की सिर्फ लोकतान्त्रिक अधिकारो की बहाली ही असल राष्ट्रिय सुरक्षा  को सुनिश्चित कर सकती है। लोकतन्त्र पर प्रहार, अल्पसंख्यकों का राजनीतिक दुराव, आर्थिक विषमता तथा सामाजिक असौहार्द सिर्फ राष्ट्र ही नहीं दुनिया के लिए भी खतरा है, और यह बात मानव अधिकार  की सार्वभौम घोषणा मे ही नहीं हमारे संविधिन की मूल भावना मे भी निहित है, और अगर  ऐसा नहीं होता तो उसी समारोह मे दूसरे दिन के कार्यक्रम में महामहिम राष्ट्रिपती श्री प्रणब मुखर्जी को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती की न्यायधीशों को आत्म अनुशासन में रहना चाहिये क्योंकि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका  की स्वतन्त्रता को खतरा है तथा प्राधिकार की इस्तेमाल करते समय संतुलन का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये जो की एक संवैधानिक वयवस्था है प्राधिकार के इस्तेमाल में संतुलन इसलिए भी जरूरी है की विधायिका और कार्यपालिका न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आते हैं और इनकी पक्षपात रहित समीक्षा के लिए न्यायालय  का स्वतंत्र और आत्म अनुशासन में रहना पहली शर्त है। न्यायिक समीक्षा संविधान के बुनियादी सिद्धान्त में निहित है और इसमे किसी तरह का अतिक्रमण नहीं होना चाहिये भले ही कोई कानून या संसोधन इसकी इजाजत ही क्यों ना देते हों।
कानूनी मामलो की बेहिसाब बढ़ती संख्या और न्यायधीशों की कमी के अत्याधिक तनाव व  दबाव में खुद उच्चतम न्यायालय का मानना है की हमारे पास इस बात के साक्ष्य और अनुभव हैं की कई मौकों पर सर्वोच्य नयायालय द्वारा कथित आतंक विरोधी कानून की संवैधानिकता तथा उसके आधार पर दिये गए फैसलों में कुछ नयायधीश राष्ट्रीए सुरक्षा को ले कर अति संवेदिनशील या न्यायिक अतिसक्रियता जैसी स्थिति में फैसला देते हैं, और ऐसा करते समय वे पूरी तरह से समझते हैं की इन क़ानूनों का कितना दुरुपयोग होता है या हो सकता है। सबसे पहले तो इसे स्वीकार करने की जरूरत हैं।  इसका उदाहरण विगत के  कुछ मृतुदण्ड के फैसलो में देखा जा सकता है जहां शायद अतिसक्रियता के कारण अपने ही मानदंडों को नज़रअंदाज़ कर फैसले लिए गए, राजद्रोह के एक मामले में अन्तरिम जमानत का फैसला लिखते समय एक माननीय नयायाधीश महोदया इतनी अतिसक्रियता के प्रभाव मे थी की नयायशास्त्र के शब्द से इतर उन्हे सिनेमा के गीत और चिकित्सा शास्त्र से शब्द उधार लेने पड़े, और तेईस पन्नो के अंतरिम जमानत के फैसले की आलोचना करते हुए कुछ कानून के जानकारों ने यहाँ तक कहा की यह एक स्मारिकीय फैसला इस संदर्भ मे है की भविष्य के फैसलो में यह ये यह तय करने मे मदद करेगा की फैसलों में  क्या नहीं लिखा जाना चाहिए। भौतिक शास्त्र से एक शब्द अगर उधार लिया जाय तो हम कह सकते हैं की यह फैसला अतिसक्रियता के  ” गृत्वाकर्षणसे मुक्त नहीं हो पाया।
-और अंत मे हरिसंकर परसाई  रचनावली के खंड दो से  एक लघु व्यंग क्रांति हो गयी जो आज की राजनीति में भी प्रासंगिक है,
एक समय किसी देश में चारों ओर क्रांति की पुकार उठने लगी ।
अन्याय पीड़ित, शोषित वर्ग के अधिकारों की मांग एकदम उभर पड़ी।
सर्वत्र एक ही मांग गूंज रही थी क्रांति ! क्रांति! क्रांति!
कारखानो के मजदूर छुट्टी के समय जब गंदे कपड़ों मे बंधी सुखी रोटियाँ निकाल उन्हे पानी के सहारे कण्ठ से नीचे उतारते तो एक ही बात कहते अब क्रांति होनी ही चाहिए।
शिक्षक पढ़ाते हुए और किसान हल जोतते हुए क्रांति की बात सोंचते।
होटल में , बाज़ार में, बसों में, रेल में, चौराहों पर चौपालों पर एक ही स्वर उठता था। क्रांति चाहिए ! क्रांति चाहिए !
कवि अपने गीतों में क्रांति का आह्वान करते।
लेखक तरुणाई को गर्म खून की सौगंध देकर क्रांति के लिए उभारते।
एक ही स्वर धरती से उठकर आसमान को छेद रहा था क्रांति ! क्रांति ! क्रांति !
राज्यसत्ता क्रांति की इस पुकार से भयभीत हुई । राजा का हृदय दहला। मंत्री घबराए। नौकरसाह सकपकाए। सत्ता, वैभब, एश्वर्य उन्हे हाथ से खिसकते नज़र आए।
राजा ने मंत्रियों को बुलाया और उनसे सलाह की। उन्होने एक तरकीब निकाली।
तीन दिनो बाद देश के तमाम अखबारों मे पहिले पृस्ठ पर मोटे-मोटे अक्षरों में उस बड़े व्यापारी का यह वक्तव्य छपा- “क्रांति होनी चाहिए। मनुष्य को मनुष्य का अधिकार मिलना ही चाहिए। जनता की सच्ची सरकार कायम होनी चाहिए।
उस राज्य में बड़े-बड़े व्यापारियों के चिकने पन्नोवाले, सुंदर कवर के, अनेक खूबसूरत अखबार निकलते थे। सबने उसकी बात को प्रमुखता से छापा। वह बड़ा व्यापारी था। सब लोग उसे जानते थे। उसका नाम सबने सुना था। लोगों ने कहा कैसा निर्भीक है!”
बस वह सवेरे व्यापारी था, शाम को नेता हो गया।
इधर अनेक देशभक्त, क्रांतिवीर, किसानो और मजदूरों में क्रांति की तैयारी कर रहे थे।
कुछ दिनो बाद उसस व्यापारी ने तमाम व्यापारियों को मिला कर क्रांतिकारी दल की स्थापना कर ली।
और एक दिन देश के तमाम अखबारों में उस व्यापारी की विभिन्न तसवीरों के साथ छापा- क्रांति हो गयी ! राजसत्ता पलट गयी !राजा गद्दी से उतार दिया गया ! क्रांतिकारी दल ने सरकार को खरीद लिया। अब जनता के सच्चे प्रतिनिधि क्रांतिकारी दल का राज्य होगा। 
अखबारों में बात छपी तो सर्वत्र फैली और गूंजी- क्रांति हो गयी !, क्रांति हो गयी !
और लोगों ने सोंचा अब करने को क्या रह गया? क्रांति तो हो गयी ।
और सर्वत्र मरघट सी मुर्दानि छा गयी। लोग निष्क्र्यि हो गए। सब पहले जैसा ही चलता रहा। राजा वही, मंत्री वही, नौकरशाही वही। वही अन्याय, वही शोषण, लेकिन लोग शान्त। उन्होने मान लिया की क्रांति हो गयी ।
और इधर क्रांति करने वाले वीर सोंचने लगे यह क्रांति बिना किए कैसे हो गयी !

  
  

    

Saturday 2 April 2016

धन विधेयक और उसका आधार



पिछली लोकसभा की संसदीय स्थाई समिति द्वारा 2010 में आधार विधेयक को जब गैरकानूनी बताया गया तो अब सरकार बदलने के अलावा ऐसा कौन सा परिवर्तन आ गया जिसे बिना किसी समग्र बहस के इसे एक “धन विधेयक” के कवच के साथ सदन मे पेश करने की जरूरत हो गयी । क्या सचमुच सरकार को राज्यसभा के विरोध का डर सता रहा था या सरकार की चुनावी मजबूरी ने लोकसभा अध्यक्ष के हाथ बांध रखे हैं । अगर ऐसा नहीं है तो क्यूँ पूर्व में जिस स्थायी समिति की रिपोर्ट जिसे दोनों सदनों ने संसद की अवमानना वाली योजना मानते हुए वापिस कर दिया था, को लोकसभा अध्यक्ष नामक संस्था तार्किकता और परंपरा के आधार पर निर्णय लेते हुए इसके धन विधेयक होने के चरित्र को खारिज कर देती है।

असल मे चुनावी राजनीति को ध्यान मे रख कर ही वंचितों को साधते हुए अनुदान वितरण का एक विरोध-रहित औज़ार तैयार किया गया है ताकि राज्यसभा इसमे कोई संसोधन नहीं करा पाये। राज्यसभा को बाहर रखने का फ़ैसला कोई विधेयक को बेहतर बनाने के लिय नहीं है बल्कि वो तो और ज्यादा बहस से ही संभव है । यही वजह है की धन विधेयक के चरित्र को देखते हुए राज्यसभा में विपक्ष ने जो संसोधन पेश किये हैं वो भी एक औपचारिकता भर लगती है । सरकार भी विपक्ष को भरोसे मे लेने के बजाय कोने मे खड़ी आक्रामक रुख दिखती हुए बचाओ की मुद्रा मे इसलेय दिख रही है की, पिछले बजट सत्र की तरह इस  सत्र में भी राष्ट्रीपती अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर विपक्ष संसोधन लाती ही नहीं बल्कि मनवाने मे भी संख्या बल के आधार पर सफल रहती है और जाहीर है कोई भी सरकार इस तरह अपनी किरकिरी नहीं करवाना चाहेगी।

राष्ट्रीपती अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव संसोधन से चुनावी लाभ नहीं मिल सकता है वहीं मुखतः वंचितों को ध्यान में रख कर अनुदान वितरण लिए बनी आधार विधेयक मे विपक्ष कोई संसोधन ला नहीं सकती और इसका का खुला विरोध उसके लिये नुकसानदायक साबित होगा, यह बात वित मंत्री विपक्ष की तरह बखूबी जानते हैं। पर क्या वो यह भी जानते हैं की जिस राष्ट्रिय नयायिक नियुक्ति आयोग के संदर्भ में उन्होने “ अनिर्वाचितों का उत्पीड़न “ वाली टिपन्नी की थी, हालांकि जिसका सबसे बड़ा उदाहरण वो खुद हैं, उन्ही अनिर्वाचितों ने दल-बदल कानून के तहत लोकसभा अध्यक्ष को निर्णय करने के अधिकार को यह कहते हुए निरस्त कर दिया की इस कानून का उपयोग करते समय लोकसभा अध्यक्ष एक अधिकरण की भूमिका मे होते हैं जो किसी भी भी नयायालय के सामान है तथा उनके इस भूमिका में लिए गए निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। इस आधार पर मौजूदा विधेयक , धन विधेयक है या नहीं यह इसमे स्पस्ट  प्रस्तावित  नहीं है, धारा सात के अनुसार “आधार संख्या का प्रयोग सिर्फ अनुदान तथा अन्य सेवा के लिए किया जायगा” जो संचित निधि के उपयोग से संभव है, धन विधेयक की श्रेणी में मोटे तौर पर रखा जा सकता है पर धारा संतावन मे “आधार संख्या को किसी की पहचान, अथवा किसी भी कार्य, अथवा किसी के भी द्वारा किया जा सकता है” इसे क़ानूनन धन विधेयक नहीं माना जा सकता। तो एक असपष्ट परिस्थिति में जब लोकसभा अध्यक्ष किसी स्थापित परिभाषा से कोई अलग अपने “विवेक” से निर्णय देती है तो निश्चित ही उसकी  नयायिक समीक्षा की जा सकती है और की जानी भी चाहिए ।


विपक्ष के लिए भले ही यह कार्य बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा हो पर सामाजिक संगठनो को इसे नयायालय के सामने लाना चाहिए क्योंकि बिना स्वार्थ रहित समग्र चर्चा के किसी कानून को सिर्फ तुलनात्मक संख्या बल पर, 
तात्कालिक राजनीतिक फायदे के लिए बना कर विधायिका मुक्त नहीं हो सकती। सरकारों की नव-उदरवाद नामक जो मूल नीति है उसमे बिना किसी परिवर्तन के यह विधेयक वंचितों की संख्या में अपनी तकनीकी खामियों के कारण और वृद्धि ही करेगी, चतुराई से गढ़ी परिभाषा कानून में नहीं होनी चाहिए क्योंकि जो प्र्त्यक्ष रूप से गलत है वो अप्रयत्क्ष रूप मे भी गलत है जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में कई अनदेखे दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। आधार संख्या भारत जैसे देश के लिए एक अच्छी कानून की भूमिका तभी निभा पायगी जब इसमे हर वर्ग और क्षेत्र के प्रतिनिधितव हो जो बिना बौद्धिक मध्यस्थता के संभव नहीं है। 

Saturday 20 February 2016

जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय:- बोलने के बाद की आजादी ...


कहते हैं राजनीति की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती है बल्कि अलग अलग विचारधाराओं की राजनीति होती है। तो सवाल यह है की आखिर ये विचार कहाँ से आते हैं, जाहीर है विचार का उत्स ज्ञान और अनुभव है वैसे ही जैसे श्रम पूंजी और धन का उत्स है। ज्ञान का पहला अनुभव हमे परिवार से होता है, फिर अपने आस-पास के समाज में इसका विस्तार होता है। इसी ज्ञान को और गहराई देने मेँ शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वही शिक्षा जो सदियों के मानव अनुभव का उस तात्कालिक समय में निचोड़ होता है और जैसे जैसे नये अनुभवों से हमारा सामना होता है इन निचोड़ों के रंग और स्वाद मे बदलाव आता रहता है, और इसिलेय शिक्षा कभी पूरी नहीं होती। इन रंगों और स्वाद का बेहतर परख और पहचान करने में सिक्षण संस्थान अपनी भूमिका एक राजनीतिक प्रयोगशाला के रूप में निभाते हैं, राजनीति इसलिया क्योंकि हर वो बात जिसका संबंध मानव प्रजाति से है, उत्पाद और उत्पादकता से है, वो राजनीति है। प्र्योगशाला मे चर्चा तथ्यों ओर तत्वों की होती है, वो प्र्योगशाला भी उन्ही तत्वों के मिश्रण से बनती है पर चर्चा में कभी प्र्योगशाला नहीं होती बल्कि उनका मूल्यांकन इस आधार पर होता है की उस प्र्योगशाला में किस हद तक प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि उन्हे चर्चा में लाने का अर्थ है चाँद की तरफ इशारा करने वाली अंगुली में ही दोष-गुण  निकालना इससे प्रयोग का समीकरण बिगड़ जाता है, संदर्भ बदल जाता है।
पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय में एसे ही कुछ बिगड़ते समीकरण को हम अनुभव कर रहें हैं, प्रयोग से अधिक प्र्योगशाला ज्यादा चर्चा में है। आखिर एसे कौन से प्रयोग हैं जिसका सामना करना असहज प्रतीत हो रहा है, और जिनके धमाकों के शोर ने  उसकी तरफ देखने को मजबूर किया है। इस विशवास के होते हुए भी की कोई भी विषफोट इस प्र्योगशाला को हिला नहीं सकता हम उसकी टूटी खिड़की और दरवाजों को ढुढ़ने में लग गए। ऐसा करते समय हमारे उस भरोसे का क्या हुआ जिस पर इन प्र्योगशालाओं की आधारशिला हमने रखी थी। क्या हम ऐसा मानते हैं की इनके निर्माण मैं जो ज्ञान और अनुभव हमने लगाया है उन विचारों में किसी तरह की कोई मिलावट थी। शायद नहीं, क्योंकि लकड़ी के पात्र में लोहे को नहीं पिघलाया जा सकता है। अहिंसा के विचार से किसी साम्राज्य को उखड़ते पूरी दुनिया ने देखा है,  इसलिया हम जानते हैं इन प्र्योगशालाओं में अनघड़ इस्पात कैसे पिघल कर रूप लेता है।
अब उस प्रयोग की बात करें जिनकी चर्चा हम यहाँ कर रहें हैं , इसके लिए समय में कुछ पीछे देखे तो बात 1980 की है जब माननीय उचत्तम नयायालय की एक संविधान पीठ जिसमे नुयुन्तम पाँच नयायधीशों का होना जरूरी है, का गठन यह तय करने के लिये हुआ की क्या आज की परिसतिथी में क्या मृतुदण्ड उचित है, और अगर उचित है तो इस विषय में दिशा निर्देश तय किया जाय।  मृतुदण्ड के संबंध में बचन सिंह मामले की संवैधानिक पीठ ने यह तय किया की “अदालतों को “अग्रिवेटिंग” (उतेजक) तथ्य  तथा  “मिटिगेटिंग” (गंभीरता कम करने वाली परिस्थितियाँ ) तथ्य का आकलन करते समय सिर्फ अपराध ही नहीं बल्कि अपराधी की भी   पारिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिये”, कानून के मुताबिक उम्रक़ैद एक नियम है तथा मृतुदण्ड एक अपवाद,  नयायधीशों को ब्लड थ्र्स्टी (खून का प्यासा) संतोष कुमार सतीशभूषण बरियार बनाम महाराष्ट्र राज्य/ पारा 84 पेज नंबर 24 क्रिमिनल अपील नंबर 1478/2005 और 452/2006) नहीं होना चाहिये, इत्यादि। माननीय उचत्तम नयायालय ने जो फ़ैसला 1980 मे दिया था उसके बाद यह अपेक्षा की जाती है की बाद के मृतुदण्ड संबन्धित फैसलो मे उन क़ानूनों का पालन किया जायगा या उस दिशा निर्दशों की समीक्षा करने के लिये एक नये “सात “ या अधिक नयायधीशों की संविधान पीठ का गठन किया जाय। पर आदेश की समीक्षा करने के लिये अभी तक ऐसा कोई गठन नहीं हुआ है तथा माननीय उचत्तम नयायालय के पाँच नयायधीशों की संविधान पीठ द्वारा दिया गया दिशा निर्देश एक बाध्यता है, एक लागू कानून है।
यहाँ यह जानना जरूरी है की 1983 में माची सिंह बनाम राज्य ,1996 में राबजी बनाम राजस्थान सरकार, तथा 2009 में संतोष बरियार बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामलों में खुद माननीय उचत्तम नयायालय ने स्वीकार किया की बचन सिंह दिशा निर्दशों का पालन नहीं हुआ है। माननीय उचत्तम नयायालय ने 2009 के संतोष बरियार मामले में यह भी कहा की पिछले 9 वर्षों में कम से कम छह एसे मामले हैं जिनमे दिशा निर्देशों का सिर्फ ध्यान ही नहीं दिया गया बल्कि न्यायिक सिद्धांतों के आधार पर बनी परंपरा को नज़रअंदाज़ कर के ये फैसले “पर इंकुरियम” ( परम्पराओं को नज़रअंदाज़ कर लिए गए फैसले ) में दिये गए हैं।
याक़ूब के फैसले पर  देश भर मे हुए कई बहसों से ये बात निकाल कर आई की इस मामले मे कई “मिटिगेटिंग”  तथ्य थे, जिनका अगर ध्यान रखा जाता तो शायद फैसला कुछ और हो सकता था, उदाहरण के लिये, टाड़ा कोर्ट ने उसकी सजा 30 अप्रैल  2015 को सुनाई लेकिन इसकी सूचना उसे 14 जुलाई  2015 को दी गयी, सूचना मे देर करना माननीय उचत्तम नयायालय के शत्रुघन चौहान मामले के अनुसार अवैध है, श्री बी॰ रमण जो रॉ में पाकिस्तान डेस्क के एक प्रमुख थे जिनकी मृत्यु के बाद उनका लेख 24 जुलाई 2015 को प्रकाशित हुआ उसमे उन्होने उसके सहयोग का जिक्र किया है तथा यह भी माना है की उसके सहयोग से नेपाल से उसकी अनओपचारिक गिरफ्तारी ( औपचारिक रूप से दिल्ली में ) तथा उसके परिवार का पाकिस्तान में समर्पण तथा भारत वापसी संभव हो पायी थी, टाड़ा कोर्ट के फैसले में अन्य सहयोगियों के बयान के अलावा  उसके बयान को ही मुख्य आधार बनाया गया है, उसने अपने दया याचिका में कहा की जेल के डाक्टरों के जांच और प्रमाणपत्र के अनुसार वह “स्खिजोफ़्रेनिया” (एक प्रकार का दिमागी असंतुलन) नामक बीमारी से ग्रसित है तथा माननीय उचत्तम नयायालय ने इस बीमारी को मानसिक बीमारी माना है तथा मृतुदण्ड के लिये उपयुक्त नहीं है, टाड़ा कोर्ट ने अन्य अभियुक्तों को उम्रकैद दिया है जबकि उसकी संलिप्तता मुख्य न हो कर सहयोग की थी, विरप्पन,भुललार, राजवाना, तथा राजीव गांधी हत्या के तीन अपराधियों की सजा उम्र कैद में बदल दी गयी है, इत्यादि । ये सारी बातें माननीय उचत्तम नयायालय की व्याख्या के तहत “मिटिगेटिंग” तथ्य के अंतर्गत आते हैं, और इन्हे ध्यान में अगर नहीं लिया जाता है तो फैसला “पर इंकुरियम” मे लिया गया है।
     तमाम अन्य तरह की चर्चा और बहस के लिये हमारे विश्वविधालय एक प्र्योगशाला की भूमिका निभाते हैं, जहां गलतियों को करने का अधिकार दिया जाता है। जैसा की तर्क दिया जाता है कि विश्वविधालय जनता के पैसों से संचालित होती है इसलिए यहाँ राजनीति नहीं होनी चाहिये, पर कोई ये बता दे राजनीति एक शास्त्र है और उसकी प्रायोगिक अभ्यास यहाँ नहीं किया जा सकता तो इस पृथ्वी पर और कहाँ संभव है। बल्कि ये कहें की यहाँ की गलतियों को किसी भी आलोचना और सज़ा से दूर रखा जाना चाहिये, अनुशासन पालन करवाने की कई और तरीके हो सकते है, सबसे बेहतर तो आत्मानुशासन हे हो सकता है, गांधी भी इसी की सिफ़ारिश करते थे। हमे यह ध्यान रखना चाहिये की राज्य को प्रतिक्रयवादी विचारधारा से कभी कोई खतरा हो ही नहीं सकता इससे जीवंतता बनी रहती है, सबसे बड़ा खतरा तो लोकतन्त्र ( लोगतंत्र नहीं ) को तब है जब कोई प्रतिक्रीया नहीं होती है। किसी प्रतिक्रया को दबाने के लिया भय का सहारा लिया जाता है, जहां भय होगा वहाँ विचारों का दमन होगा, जहां दमन होगा वहाँ नफरत होगा, और नफरत राज्य को अस्थिर करता हैं। इसके विपरीत निर्भयता के माहौल में बहस से विचार निकलता है तथा नफरत और दमन की अनुपस्थिति में राज्य ज्यादा स्थिर होता है । कुछ भी सोंचने और कहने की आज़ादी का सीधा संबंध हमारी प्रगति से जुड़ा है, और बिना इसे  सुनिश्चित किए राज्य अपने लक्ष्य को हासिल नहीं सकता । यह जानते हुए की हमारे सोंचने और बोलने के कुछ गंभीर खतरे हैं, सिर्फ इसलिए प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता, देशद्रोह तो बहुत दूर की बात है। देशद्रोह के जिस कानून को जहां से हमने लिया है उसने इसे समाप्त कर दिया है।
जब हम दुनिया के सबसे आधुनिक तकनीक को इस्तेमाल करने में गर्व महसूस कर सकते हैं तो तो उस राष्ट्र के सिद्धांत पर हम इतने रूढ़िवादी क्यों हैं जिनकी अवधारणा हमने पश्चिम से ही आत्मसात किया है। हमारी राष्ट्रिय भावना इतनी कोमल क्यों हैं की जिनके चलते हमारे विरोध इतने कठोर हो जाते हैं। राष्ट्र की अवधारणा हमारी उतनी ही नयी और पश्चिमी है जितनी हमारी भूमंडलीय अर्थवयवस्था, राष्ट्र के रूप में हम अभी परिपक्व नहीं हैं, पर पश्चिम के समाज ने हमारे आज के संदर्भ  को बहुत पहले अनुभव किया है इसीलिए हमारी जरूरत उनके अनुभवों को भी कुछ हद तक आत्मसात करने की है। भारत की विविधता अपनी व्यापकता की वजह से पूरी दुनिया में अकेली है इसलिए दुनिया भर से राष्ट्र निर्माण के अनुभव से हमें सीखने की जरूरत है। हमारी कमजोर अर्थव्यवस्था, शिक्षा के गिरती हालत, बीमार स्वास्थ सेवा, किसानो की अत्महत्या, तथा अन्य मौजूदा  समस्या हमें कोमेल भावना और कठोर विरोध की इजाजत नहीं देते हैं, ये बात हम जितनी जल्दी समझ पाएंगे  उतना ही बेहतर है।
अंत में – मशहूर पत्रकार पी साईनाथ ने पिछले दिनो एक वृतचित्र प्रदर्शित की “नीरो गेस्ट“।  विद्धर्भ मे किसानो की अत्महत्या पर बनी यह वृतचित्र गहरा प्रभाव छोड़ती है। रोमन इतिहासकर “टेसीटस” ने अपने इतिहास की पुस्तक दी अनेल्स  ऑफ टेसीटस **  के पन्द्र्वहे अध्याय मे नीरो और जलते रोम का जिक्र करते हुए कहता है “नीरो अपने शाम के तमाशे, मनोरंजन, तथा रात्री भोज के लिये अपने बगीचे में  हर “उस” को आमंत्रित करता था जो रोम मैं “कुछ” था। पर उन बगीचों मे एक समस्या थी, की शाम ढलते ही वहाँ अंधरा छा जाता था, और रौशनी का कोई इंतज़ाम नहीं हो पाता था। तो कैसे उसने इस समस्या का समाधान निकाला। जैसा की टेसिक्स और उसके अन्य समकालिक इतिहासकारो ने दर्ज़ किया है की शाम के मनोरंजन के बाद जब  रात का अंधेरा बढ़ता था तब उसके बंदीगृह मे कैद “अपराधियों” को  सलीब में चढ़ा कर जला दिया करता था ताकि रात रौशन हो सके। “टेसीटस” के अनुसार समस्या नीरो नहीं था, क्योंकि वो भी अपने पुर्वर्ती रोमन शासको की ही तरह था जिनके आदेश पर कई गुलामो को खेल के नाम पर भूखे शेर के सामने डलवा दिया जाता था, समस्या थे नीरो के वो आमंत्रित मेहमान। आखिर कौन थे वे? वे उसी समाज के तो थे, कैसी मानसिक अवस्था और स्थिति की जरूरत होती है किसी को ऐसे कार्य को करने या देख पाने के लिए ? वो कलाकार थे, लेखक थे, व्यापारी थे, सैनिक थे, यानि सारी रोमन बौद्धिकता वहाँ उपस्थित रहती होगी, जिनकी भय, लालच या लाचारी की खामोशी उन आयोजनो को सफल बनाती होगी।  
कहने का अर्थ यह है निर्भीक होना और ऐसी किसी भी रात्री भोज मे अपना विरोध दर्ज कराना ही समृद्ध, प्रागितिशील और कुशल राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसीलिए सोंचना और खुद को व्यक्त  करना हमें सीखना होगा। संविधान ने हमे बोलने की आज़ादी दी है, पर बोलने के बाद की आजादी सुनिश्चित करना तो राज्य का काम है।


**( अनेल्स  ऑफ टेसीटस इंटरनेट क्लासिक आर्काइव पर अल्फ़ेरेड जॉन और विलियम जेकसन द्वारा अँग्रेजी अनुवाद निशुल्क उपलब्ध) 

Friday 23 October 2015

संवैधानिक : राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग या सर्वोच्य नयायालय

संवैधानिक : राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग या सर्वोच्य नयायालय
पिछेले दिनों राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग को शीर्ष नयायालय ने कहा कि यह असंवैधानिक है । क्या एक चुनी हुई सरकार नयायधीशों का चयन नहीं कर सकती या नहीं करना चाहिये, जबकि पहले (1993 तक) सरकारें ही नयायधीशों का चयन करती थीं। उधर सरकार का कहना है कि नयायधीशों कि निययुक्ति एक विधायी कार्य है और इससे नयायपालिका में अतिक्रमण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिय, बल्कि यह अधिकार तो विधायिका के पास पहले से थे जो 1993 के बाद कोलोजियम व्यवस्था के तहत नयायपालिका को चला गया, संसद उसी परंपरा को पुनर्स्थापित कर रही है, राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग से नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी तथा एक नयी व्यवस्था स्थापित होगी।
आखिर क्या है हमारा संविधान? लोगों कि अभिवयक्ति या बहुमत कि अभिवयक्ति? क्या बहुमत से यह सिद्ध हो सकता है? क्या है संतुलन का सिद्धान्त? क्या संविधान  असंतुलित है या पूरी तरह से संतुलित? शायद दोनों ही क्योंकि यह जड़ नहीं लचीला है और यही इसे लोगो कि संतुलित अभिवयक्ति बनाती है। यह एक खाली पात्र है। जिसमे अलग अलग समय के समाज के मूल्यों के आधार पर भरा जाता है, बिना बर्तन कि बनावट में किसी प्रकार कि परिवर्तन किये हुए। इस पात्र का मुख्य आधार नीति निर्देशक तत्व है जो इसकी मूल बनावट  (भावना) को सुरीक्षित रखती है। राज्य को चलने चलाने के लिए उन्ही नीतियो के तहत  कार्यक्रम कि जरूरत होती है, जिनका आधार संविधान कि मूल भावना होती है।
अगर समय में थोड़ा पीछे 1967 तक देखें तो खंड 3(बुनयादी अधिकार) में धारा 13(2) के अनुसार संविधान में संसोधन कानून नहीं था, पर गोलकनाथ मामले के फैसले में  शीर्ष नयायालय ने कहा कि संवैधानिक संसोधन एक कानून है और इससे अगर बुनयादी अधिकार पर प्रभाव पड़ता है तो इसकी नयायिक समीक्षा कि जा सकती है,। इस मामले में नयायालय ने पाया कि उस बर्तन कि बनावट में परिवर्तन कि कोशिशें दिखतीं है और यहाँ  बुनियादी अधिकार का उलंघन होता प्रतीत होता है। आर्थत जबतक सबकुछ सामान्य है तब तक आदर्श स्थिति मानी जा सकती है लेकिन नीति निर्देशक तत्वों को बहाल रखने के लिये  बुनयादी अधिकारों में अगर कोई संसोधन लाया जाता है तो यह सुनिशित करना चाहिय कि संविधान कि बुनियादी बनावट या सिद्धान्त मैं कोई परिवर्तन न हो। नयायालय ने अपना यही दृष्टिकोण केशवानन्द भारती केस (1973) में बरकरार रखा।
यहाँ यह जानना जरूरी है कि धारा 124 एक सम्मिलित रूप में सर्वोच्य नयायालय, मुख्य नयायधीश के साथ सात (7) अन्य नयायधीश कि स्थापना को सुनिश्चित करता है। संसद को संसोधन कानून के माध्यम से नयायधीशों कि संख्या को बढ़ाने का प्रधावन है, जिसे नंबर ऑफ ज्जेस एक्ट 1956 को 1986 में संसोधित कर 25 तथा 2008 में 30 किया गया है। जहां तक मुख्य नयायधीश कि नियुक्ति  का विषय है वो वरिष्ठता कि वरीयता के आधार पर होता है। वहीं धारा 124(2) में सर्वोच्य नयायालय के नयायधीशों कि नियुक्ति मुख्य नयायधीश से सलाह के साथ नहीं सलाह के बाद करने कि प्रक्रिया है, सरकार मुख्य नयायधीश से सलाह कर केबिनेट के माध्यम से राष्ट्रपति को प्रस्ताव भेजता है तथा राष्ट्रपति उस प्रस्ताव के आधार पर कार्य करते है न कि निर्णय लेते हैं।
 सर्वोच्य नयायालय के एस पी गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (AIR1982 SC149) में नयायधीशों कि नियुक्ति को लेकर उनके नाम के चुनाव के बाद उनपर सहमति और नजरियों के आदान प्रदान को प्रक्रिया में लाया गया लेकिन यह कोई बाध्यता नहीं थी। बाद में 1993 को सुप्रीम कोर्ट एडवोकट ऑन रिकॉर्ड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, के  फैसले में नयायधीशों को नियुक्त  करने करने का अधिकार पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया तथा निरंकुसत्ता  से बचने के लिय मुख्य नयायधीश के अलावा दो अन्य वरिष्ठतम नयायधीशों को नयायधीशों कि नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल किया। इस प्रक्रिया को अपनाने और कुछ विवादों के आने के बाद राष्ट्रपति ने धारा 143 के आधार पर कुछ सुझाव दिये, जिसपर नयायालय ने अपनी राय ( spl. Ref. No. 1 of 1998 on 28 oct. 1998[(1998)7n scc 739] दी तथा दो अन्य वरिष्ठतम नयायधीशों से सलाह कि संख्या को बढ़ा कर चार कर दिया, साथ में यह भी सुनिशित किया कि किसी दो के द्वारा अगर किसी नाम पर समहती नहीं होती है तो उस नाम को नहीं भेजा जायगा। अर्थात किसी नाम को भेजने के लिए सर्वसम्मति या मुख्य नयायधीश को मिला कर तीन कि सहमति होनी चाहिए।
1973 के केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था बुनयादी अधिकार कि परिभाषा समय, मूल्य, प्रतिबंध,तथा अनुभव ईत्यादी के प्रकाश में देखा जाना चाहिय। संविधान सभा ने इसिलिय इसे लचीला रखा है। अब अगर केशवानन्द भारती केस के आधार पर देखा जाय तो यह संविधिनाक संसोधन पूरी तरह से असंवैधानिक प्रतीत होता है क्यूंकि यह संविधान कि बुनियादी बनावट या सिद्धान्त का उलंघन है। 1993 को सुप्रीम कोर्ट एडवोकट ऑन रिकॉर्ड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (AIR 1994 SC268)कि सुनवाई के बाद नौ जजों का जो फैसला था वो संविधान के एक बुनयादी ढांचे कि खोज पर आधारित थी जो व्यवस्था को सुरीक्षित रखते हुए चलाने के लिए व्यवस्था में रखी गयी थी, और वो थी संविधान कि सबसे छोटी लिखित धाराओं में से एक, खंड IV, नीति निर्देशक (directive principles of state policy) कि धारा 50, जो राज्य को जन सेवा के लिया नयायपालिका को कार्यपलिका से अलग रखने को कहता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि नयायधीशों को समाज में शामिल नहीं होना चाहिय या उनको अलग समाज में रहना चाहिय बल्कि इसका सिर्फ ये अर्थ है कि सिवाय सिर्फ सलाह देने के, जजों कि नियुक्ति का कार्य किसी भी परिस्थिति में कार्यपलिका पर निर्भर नहीं होना चाहिय।
एक तर्क यह भी है कि चुनाव आयोग, भारत के महालेखा नियंत्रक या अन्य कोई संवैधानिक संस्था के प्रमुखों कि नियुक्ति भी तो सरकार ही करती है उसे भी तो क्या अतिक्रमण ही समझा जायगा। दूसरा तर्क कि एक चुनी हुई सरकार जिसको जनता का विशवास हासिल है और लोकतन्त्र में जनता कि भावना का सम्मान होना चाहिय, इसिलिय यदि संसद किसी संसोधन को ले कर आती है तो उसे बरकरार रखना चाहिय। और भी कई तर्क दिया जा सकता है, दिया भी जा रहा है, जैसे नयायपालिका को कानून बनाने का नहीं उसकी व्याख्या करने अधिकार है, या भारतीय लोकतन्त्र अनिर्वाचितों द्वारा उत्पीड़ित नहीं हो सकता। 
संविधान संसोधन कि जो व्याख्या सर्वोच्य नयायालय ने केशवानन्द भारती फैसले मेँ कि जो अगले किसी बदलाव तक लागू कानून ही रहेगा, और उस आधार पर मौजूदा संसोधन असंवैधानिक, तथा राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग का गठन गैरकानूनी है क्योंकि आयोग का गठन बिना संविधिनाक संसोधन के संभव नहीं है।  
मनुष्य अकेला नहीं रह सकता इसलिय वो समाज बनाता है, और फिर समाज को संचालित करने को राज्य का निर्माण करता है, नयायपालिका उसी राज्य का एक स्तम्भ है। शासन के विकल्पों में निर्वाचित लोकतन्त्र को हमने अपनाया है पर आपसी सहमति के अलावा न्याय का कोई विकल्प नहीं है बल्कि इसमे किसी तरह की “वीटो” अपने आप में अन्याय है, इसलिय “अनिर्वाचितों द्वारा उत्पीड़न” का नजरिया रखना सही नहीं लगता, लोगो कि भावना संविधान है बहुमत या अल्पमत से इसका कोई सीधा संबंध नहीं है, और  जहां तक दूसरे सारे संवैधानिक संस्था के प्रमुखों कि नियुक्ति का प्रश्न है नयायपालिका के अलावा सभी का कार्य विधायी ही है न कि नयायिक इसलिए विधायी प्रमुखों कि नियुक्ति कार्यपलिका का ही कार्य है तथा उससे संस्था के कार्यों पर प्रभाव नहीं पड़ता है। तर्कों को अगर समझा जाय तो नाम से ही स्पष्ट है कि प्रस्तावित कानून सिर्फ नयायधीशों कि नियुक्ति, पदस्थपना और तबादले को ध्यान में रख कर कि गयी है। इसका मुख्य मकसद 1993 के बाद बनी कोलोजियम व्यवस्था को हटाना मात्र है, प्रस्तावित कानून का नयायिक सुधार से संबंध नहीं है, क्योंकि पुरानी नियुक्तियों की आपातकाल और अन्य मौकों पर आलोचना हुई तथा वर्तमान कोलोजियम व्यवस्था में भी नयायधीशों की आलोचना होती है, सर्वोच्य नयायालय ने खुद स्वीकार किया है तथा सुझाव भी मांगे हैं, अर्थात दोष व्यवस्था में नहीं है, नयायधीश गलत हो सकते है, और शायद होते भी रहेंगे। हो सकता है कि कोलोजियम का जन्म नयायपालिका से ही हुआ है, और ये उस समय के संविधान कि व्याख्या के आधार पर ही अस्तित्व में आया, लेकिन तमाम कमियों के बावजूद आज यह एक लागू व्यवस्था है जो संविधान कि मूल भावना, मुखयतः नयायपालिका कि अपनी सर्वोच्यता और नयायिक नियुक्ति कि स्वतन्त्रता, का सम्मान करता है।

Shashi sagar verma
Member- PUCL